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May07

मित्रों आज सुबह सुबह नाश्ता कर ही रहा था एक पाठक ने ईमेल से चरक द्वारा मांसाहार के बारे में और भारतीय अभी तक शाकाहारी क्यों हैं इस पर प्रश्न किया.

आइये देखें-

प्र. चरक ने मांसाहार को सर्वोत्तम आहार क्यों कहा है?

उत्तर. चरक ने अन्न को सबसे श्रेष्ठ आहार कहा है न कि मांस को .

“अन्नं वृत्तिकारणं श्रेष्ठम, क्षीरं जीवनीयांम , माँसं ब्रहणीयाँनंम “
(चरक संहिता-सूत्र स्थान-अध्याय 25-यज्जपुरुषीय अध्याय-श्लोक 40)

अर्थ- अन्न ही सर्वश्रेष्ठ आहार है, दूध जीवन देने में सर्वश्रेष्ठ है और मांस पुष्टि करने में.

चरक संहिता के अनुसार आहार के 12 टाइप होते हैं. जिनको उनके श्रेष्ठता क्रम के अनुसार वर्णन किया है ऐसा चरक संहिता में वर्णित है. जिसमे-

• पहला वर्ग शूक धान्य वर्ग है ( गेहूं, चना , जौ आदि )

• दूसरा शमीधान्य वर्ग है ( मूंग, मसूर, उड़द की दाल इत्यादि )

• और मांसवर्ग का वर्णन तीसरे नंबर पर आता है.

( चरक संहिता-सूत्र स्थान- अध्याय 27- अन्नपान व्रद्धीय अध्याय )

प्र. भारत के अधिकाँश लोग शाकाहारी क्यों हैं ?

उत्तर.
• भारतवर्ष योग और आयुर्वेद विज्ञान की जन्मभूमि है. योग का उद्देश्य सात्विक गुणों की व्रदधि करना है जिससे हम मुक्त हो सकें. ऐसा भारतीय संस्कृति में सैकड़ों वर्षं से माना जा रहा है. भारतीय परम्परा में ऐसी मान्यता है कि हम जो खाते हैं वैसे ही हम बन जाते हैं. (जैसा खावे अन्न; वैसा होवे मन).

• आहार के घटकों में सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजन होते हैं. शरीर की साम्यावस्था और अलर्ट रहने का ही नाम सत्व गुण है. मीट से शरीर में राजसिक और तामसिक गुण बढता है अर्थात ताजगी और साम्यावस्था नहीं आती है.

• चूँकि मांस भक्षण बहुत से अन्य भोजन तामसिक गुणों को बढ़ावा देते हैं और सात्विक गुणों की कमी कर देते है; जो कि भारतीय परम्परा के लिए अनुपयुक्त है इसीलिए भारत के अधिकाँश लोग शाकाहारी हैं !!

मांसाहार

आयुर्वेद में मांसाहार के प्रयोग का कारण : मेरे विचार

1. चरक के अनुसार मांसाहार शरीर को पोषण देता है. ऋषि चरक ने कभी कभी मांस खाने का उल्लेख किया है. लेकिन वो मांस खाने के लिए कुछ विशेष अवस्थाओं में ही करते हैं. जैसे शारीरिक क्षय, अति क्षीण या कमजोरी के कारण मांसपेशियां कार्य करने में समर्थ हो जाएँ. परन्तु केवल और केवल मांसाहार मूल आयुर्वेदिक सिद्धांतों शामिल नहीं है.

2. ये मांस भक्षण ऐसा नहीं है जैसा आजकल हो रहा है. ये रोग की गम्भीरता पर निर्भर था कि किसी रोगी को मांस दिया जाना चाहिए या नहीं. चरक के समय के जानवर फ़ार्म हाउस में नहीं रखे जाते थे और न ही उन्हें कृत्रिम रूप से सिर्फ मांस भक्षण के लिए पाला जाता था. उस समय जानवर जंगल में विचरते थे और उन्हें खाने के लिए शिकार करके ही मारा जाता था.

3. लेकिन आज के माहौल से हम तुलना करें तो आज मांस खाने के लिए अधिकाँश जानवरों को उनके मूल स्थान जंगल से उठा कर फार्म हाउस में पाला जा रहा है. साथ ही साथ मांस बढ़ाने के लिए उन्हें केमिकल रुपी जहर की खुराक खाने और इंजेक्शन के द्वारा दी जा रही है.

4. तो आज के परिपेक्ष्य में मांस खाना चरक के तर्क से वैसे भी अनुचित साबित हो जाता है. मेरे विचार से मांस का भक्षण उसी रोगी के लिए उचित है जहाँ शाकाहारी / हर्बल उपाय उसके जीवन को बचाने के लिए सीमित संख्या में उपलब्ध हों.

5. आयुर्वेद के अनुसार जो प्राक्रतिक तत्व जिस क्षेत्र में अधिक पाए जाते हैं उन प्राकृतिक तत्वों का बाहुल्य भी उस क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों में होता है. उदाहरण के लिए जलीय वातावरण में रहने वाले जीवों का मांस शुष्क क्षेत्र में रहने वाले जीवों के मांस से ज्यादा नम और भारी होगा. चरक के अनुसार अगर कोई जानवर अपने प्राकृतिक वातावरण में नहीं रह रहा है या उस भोगौलिक क्षेत्र का मूल निवासी नहीं है या किसी किसी ऐसे वातावरण में शिकार किया गया है जहाँ का माहौल उस के अनुरूप नहीं है या पशु विषाक्त है तो ऐसे मांस को नहीं खाना चाहिये.

 

सवाल उठता है कि यदि सही जगह रहने वाले जानवर को मारा जाय तब मांस खाना उचित है?

आज मैं प्रिय पारिवारिक सदस्यों डॉ. सचिन और डॉ. अर्चित जैन से मांसाहार पर चर्चा कर रहा था तो कुछ बातें पुनः स्मरण व स्पष्ट हुईं जैसे –

1. आयुर्वेद में तीन तरह की शारीरिक प्रकृतियाँ पायी जाती हैं – वात, पित्त और कफ. वातिक प्रकार के लोग शारीरिक दृष्टिकोण से पतले होते हैं और अल्प बल वाले होते हैं. पित्त प्रकृति वाले लोग ऊष्ण प्रकृति और अम्लता युक्त होते हैं. कफ प्रकृति के लोग स्थूल शारीरिक संघनन के होते है.

2. तो फिर अगर जीभ की लोलुपता के कारण लोग मांस खाना नहीं छोड़ पा रहे हैं तो वात प्रकृति के लोगों को ही यह अधिक सूट कर सकता है. पित्त प्रकृति वाले लोग अधिकांश शाकाहारी डाइट पर रहें और कफ प्रकृति वाले लोग भी कभी कभी ही मांस खाए; ऐसा हमारा निष्कर्ष है.

3. आयुर्वेद के अनुसार रोगों की उत्पत्ति का मूल कारण आमाशय से उत्पन्न आम यानी बिना पचा खाना होता है .भारी भोजन को हलके भोजन से पचने में अधिक समय लगता है .हमारा उद्देश्य भोजन के सभी अवयवों को पूरी तरह पचा कर उनको ऊर्जा में परिवर्तित करना होता है. भारी या गरिष्ठ भोजन पचने में अधिक समय लेते हैं और उनसे शरीर और मन में आलस्य और सुस्ती आती है जिसे तामसिक गुण भी कहा जाता है .

4. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में भी कहा गया है -
When digestion is weak there tends to be a development and proliferation of anaerobic bacteria. The presence of the bacteria promotes the conversion of meat proteins into harmful substances, such as phenol and “pseudo monoamines”
इन pseudo monoamines के कारण तंत्रिका तंत्र के सिग्नल धीमे हो जाते हैं और मांसाहारी लोगों को आलस्य, ज्यादा सुस्ती और मानसिक थकान अधिक महसूस होती है

5. अंडा और मीट से मनुष्य में आवेग और क्रोध लाने की प्रवृत्ति होती है जिसे हम तामसिक गुण कहते हैं. मेरे विचार से ये गुण इसमें उपस्थित आर्कीडोनिक एसिड जो कि एक उद्दीपक रसायन है इसकी वजह से आते हैं. कुछ जानवरों में स्टीरोइड के इंजेक्शन भी लगाए जाते हैं, इस वजह से मनुष्य में भी ज्यादा आवेश और राजसिक गुणों का अधिक होना देखने को मिलता है .

6. भोजन श्रंखला में जानवर अंतिम स्थान पर आते हैं . इनके शरीर में कीटनाशक और अनेक तरह के केमिकल का संचय पहले से ही रहता है. जानवरों को मारते समय उनके शरीर में स्ट्रेस हर्मोने का अत्याधिक रिसाव होता है जिससे हमारे शरीर पर भी अनुचित प्रभाव हो सकता है.

7. आयुर्वेद का अर्थ है आयु का विज्ञान ; चाहे वो मानव कि आयु हो या फिर पशु की. तो फिर अपने जीवन के लिए जब खाने के और भी साधन उपलब्ध है तो फिर सिर्फ जीभ के स्वाद के लिए किसी और जीव की ह्त्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है.

8. एक बार एक शराबी के सामने एक ग्लास में पानी और एक गिलास में शराब रखी गयी फिर दोनों में एक एक कीड़ा डाला गया. शराब के ग्लास वाला कीड़ा मर गया और पानी के ग्लास वाला कीड़ा ज़िंदा रहा .उससे यह पूछा गया कि बताओ इससे आपने क्या सीखा ;
तो उसने कहा कि इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें रोज़ शराब पीनी चाहिए क्योंकि इससे पेट के कीड़े मर जाते हैं.
यदि लोग आयुर्वेद में मांस खाने की बात के मर्म को नहीं समझ कर इस तथ्य के पीछे पड़के मांसाहार को जस्टिफाई करते है तो इसे मांस खाने की आपकी इच्छा को ऊपर बताई गयी कहानी जैसे ही जस्टिफाई करना समझा जाएगा !!!

मित्रों एक बार सोचिये कि यदि उस निरीह जानवर की जगह आप होते और आपकी गर्दन पकड के कोई काट रहा होता (जैसे कि तालिबान जैसे राक्षस अपने पागलपन को पूरा करने के लिए करते है ) तो आप पर क्या बीतती ?

इसलिए आइये हम सब भारत की परम्पराओं के अनुरूप जब तक संभव हो शाकाहार अपनाएँ और सिर्फ जीभ के स्वाद के लिए किसी की ह्त्या करके उसका जीवन नष्ट न करें.

प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में,  

आपका अपना,

डॉ.स्वास्तिक 

(निःशुल्क चिकित्सा परामर्शजन स्वास्थ्य के लिए सुझावों तथा अन्य मुद्दों के लिए लेखक से drswastikjain@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है )



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